Mahakumbh 2025 – अनूठी है दंडी स्वामियों के दंड धारण करने की परंपरा, दंडी संन्यासी ही बन सकते हैं शंकराचार्य
Mahakumbh 2025 – The tradition of Dandi Swamis to wear the stick is unique, only Dandi Sanyasis can become Shankaracharya
दंडी संन्यासी सनातन धर्म के एक महत्वपूर्ण भाग हैं, जिनकी परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। महाकुंभ 2025 के दौरान, कुंभ नगरी में दंडी संन्यासी बड़ी संख्या में पहुंचे हैं, और उनके दंड धारण करने की अनूठी परंपरा देखने को मिल रही है।
दंडी संन्यासी का दंड धारण करना
दंडी संन्यासी के जीवन का यह एक अभिन्न अंग है। दंड को वैदिक मंत्रों के आधार पर तय किया जाता है, और यह पांच प्रकार का होता है—
सुदर्शन दंड
नारायण दंड
गोपाल दंड
वासुदेव दंड
अनंत दंड
सुदर्शन दंड छह गांठ वाला होता है, जो सुदर्शन मंत्र का प्रतीक है।
नारायण दंड आठ अक्षरों वाला होता है, जो नारायण मंत्र का प्रतीक है।
गोपाल दंड दस गांठ वाला होता है।
वासुदेव दंड बारह गांठ वाला होता है।
अनंत दंड 14 गांठ वाला होता है, जो उपनिषद और अनंत मंत्र का प्रतीक है।
दंड धारण की परंपरा और नियम
दंडी संन्यासी हमेशा गुरु दीक्षा के बाद अपना दंड साथ रखते हैं।
दंड को पवित्रता का प्रतीक माना जाता है, और इसे किसी बाहरी स्पर्श से बचाकर साफ-सुथरे कपड़े में रखा जाता है।
दीक्षा के बाद बिना दंड के बाहर निकलना निषिद्ध होता है। केवल पूजन के समय ही दंड को कपड़े से बाहर निकाला जाता है।
दंडी संन्यासी अपनी इच्छानुसार किसी भी दंड को चुन सकते हैं, लेकिन उसे सात्विक और पवित्र बनाए रखना उनका मुख्य कर्तव्य है।
दंडी संन्यासी और शंकराचार्य पदवी
सनातन धर्म में शंकराचार्य का पद सबसे ऊंचा माना जाता है।
दंडी संन्यासी ही शंकराचार्य बन सकते हैं, क्योंकि इस पद के लिए सच्चे साधक की आवश्यकता होती है।
राजदंड का नियंत्रण और धर्माचार्य की भूमिका निभाने के लिए भी दंड धारण करने की परंपरा बनी है।
दंड को भगवान विष्णु का प्रतीक भी माना जाता है, जो धर्म, अनुशासन और पुण्य का परिचायक है।
दंडी संन्यासी की भूमिका
दंडी संन्यासी न केवल अपनी साधना के लिए जाने जाते हैं, बल्कि समाज में आदर्श और अनुशासन के उदाहरण भी बनते हैं। वे ध्यान, पूजा-पाठ, जप, कीर्तन के जरिए समाज को धार्मिक शिक्षा प्रदान करते हैं।
महाकुंभ 2025 में दंडी संन्यासी अपनी इस परंपरा को जीवित रखते हुए सनातन धर्म की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी साधना और दंड धारण की यह अनूठी परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगी।